पण्डित प्रतापनारायण मिश्र (Pratap Narayan Mishra) भारतेन्दु युग के सुप्रसिद्ध पत्रकार एवं निबन्धकार थे। इन्होंने दिनाँक 15 मार्च, सन् 1883 ईस्वी से कानपुर से ‘ब्राह्मण’ नामक पत्र का संपादन करके हिन्दी पत्रकारिता, भाषा एवं साहित्य के इतिहास में एक नए युग का शुभारम्भ किया था। वे हिंदी के श्रेष्ठ निबंधकार , कवि और महान नाटककार के रूप में जाने जाते हैं।
खुलकर सीखें के आज के इस ब्लॉगपोस्ट के माध्यम से हम प्रतापनारायण मिश्र का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, भाषा-शैली, और उनकी प्रमुख रचनाओं के बारे में पढ़ेंगे।
प्रतापनारायण मिश्र
नाम | प्रतापनारायण मिश्र |
जन्म | 24 सितंबर,1856 ईस्वी |
जन्म-स्थान | बैजे, उन्नाव, उत्तर प्रदेश |
पिता का नाम | श्री संकटाप्रसाद |
माता का नाम | ज्ञात नहीं |
पेशा | लेखक |
मृत्यु | 6 जुलाई, सन् 1894 ईस्वी |
मृत्यु-स्थान | कानपुर, उत्तर प्रदेश |
प्रमुख रचनाएं | प्रताप पीयूष, प्रताप समीक्षा, प्रताप-लहरी, कलि-प्रभाव, हठी हम्मीर, मन की लहर, शृंगार-विलास, लोकोक्ति-शतक, प्रेम-पुष्पावली, इत्यादि। |
विधाएं | निबंध, नाटक, कविता |
भाषा | हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी |
शैली | हास्य-व्यंग्यपूर्ण विनोदात्मक शैली, गम्भीर विचारात्मक एवं विवेचनात्मक शैली |
सम्पादन | ब्राह्मण, हिंदुस्तान |
प्रतापनारायण मिश्र का जीवन परिचय
Pratap Narayan Mishra ka Jivan Parichay: हिंदी गद्य साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रतापनारायण मिश्र का जन्म 24 सितंबर, सन् 1856 ई० में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बैजे नामक गाँव में हुआ था। वे भारतेंदु युग के प्रमुख साहित्यकार थे। उनके पिता का नाम संकटाप्रसाद था जो एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और अपने पुत्र को भी ज्योतिषी बनाना चाहते थे। किंतु मिश्र जी को ज्योतिष की शिक्षा रुचिकर नहीं लगी। उसके बाद, पिता ने अंग्रेजी पढ़ने के लिए स्कूल भेजा किंतु वहाँ भी उनका मन नहीं लगा। लाचार होकर उनके पिता जी ने उनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया।
इस तरह मिश्र जी की शिक्षा अधूरी ही रह गई। लेकिन उन्होंने स्वाध्याय के बल से हिंदी, उर्दू और बंगला भाषा को अच्छी तरह सीखा और साथ ही फारसी, अंग्रेजी और संस्कृत का भी अध्ययन किया। बचपन से ही मिश्र जी ‘कविवचनसुधा’ के गद्य-पद्य-मय लेखों को बड़े दिलचस्पी से पढ़ते थे, जिससे हिंदी के प्रति उनका झुकाव बढ़ा।
इसी बीच वे भारतेंदु जी के संपर्क में आए। उनके प्रोत्साहन और आशीर्वाद से वे हिंदी गद्य तथा पद्य की रचना करने लगे। सन् 1882 ईस्वी के आसपास उनकी रचना ‘प्रेमपुष्पावली’ प्रकाशित हुई और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की जिससे उनका उत्साह और बढ़ गया। वे भारतेंदु जी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे तथा उन्हें अपना गुरु और आदर्श मानते थे।
मिश्र जी अपने हाजिरजवाबी एवं विनोदी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे। 15 मार्च, सन् 1883 ईस्वी को ठीक होली के दिन अपने कई मित्रों के सहायता से मिश्र जी ने ‘ब्राह्मण’ नामक एक मासिक पत्र निकाला। यह अपने रंग-रूप में ही नहीं बल्कि विषय और भाषा-शैली की दृष्टि से भी भारतेंदु युग का विलक्षण पत्र था। सजीवता, सादगी, बाँकपन और फक्कड़पन के कारण भारतेंदुकालीन साहित्यकारों में जो स्थान मिश्र जी का था, वही तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता में इस पत्र का था।
मिश्र जी मजाकिया और जिंदादिल व्यक्ति थे, लेकिन स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही के कारण उनका शरीर युवावस्था में ही रोग से ग्रस्त हो गया। स्वास्थ्य रक्षा के नियमों का उल्लंघन करते रहने से उनका स्वास्थ्य दिनों -दिन गिरता गया। सन् 1892 ईस्वी के अंत में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षों तक बीमार ही रहे। अंत में 38 वर्ष की अवस्था में 6 जुलाई, सन् 1894 ईस्वी को दस बजे रात में भारतेंदुमंडल के इस नक्षत्र का देहावसान हो गया।
प्रतापनारायण मिश्र का साहित्यिक परिचय
Pratap Narayan Mishra ka Sahityik Parichay: शुरुआत में मिश्र जी की रुचि लोक-साहित्य का सृजन करने में थी इसलिए इन्होंने अपना साहित्यिक जीवन का आरंभ ख़्याल एवं लावनियों से किया। यहीं से ये साहित्यिक-पथ के सतत प्रहरी बन गये। कुछ वर्षों के बाद ही ये गद्य-लेखन के क्षेत्र में भी उतर आये।
मिश्र जी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अपना गुरु मानते थे क्योंकि वे उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। उनके जैसी ही व्यावहारिक भाषा-शैली अपनाकर मिश्र जी ने कई मौलिक और अनूदित रचनाएँ लिखीं तथा ‘ब्राह्मण‘ एवं ‘हिन्दुस्तान‘ नामक पत्रों का सफलतापूर्वक सम्पादन भी किया।
भारतेन्दु जी की पत्रिका ‘कवि-वचन-सुधा’ से प्रेरित होकर मिश्र जी ने कविताएँ भी लिखीं। इन्होंने कानपुर में एक ‘नाटक सभा‘ की स्थापना भी की, जिसके माध्यम से वे पारसी थियेटर के तरह हिन्दी का अपना रंगमंच खड़ा करना चाहते थे।
वे खुद भारतेन्दु जी की तरह ही एक कुशल अभिनेता थे। बँगला के अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद करके इन्होंने हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की। इनकी साहित्यिक विशेषता ही थी कि इन्होंने ‘दाँत’, ‘भौ’, ‘वृद्ध’,’ धोखा’, ‘बात’, ‘मुच्छ’ जैसे साधारण विषयों पर भी चमत्कारपूर्ण और असाधारण निबन्ध लिखे।
प्रतापनारायण मिश्र की प्रमुख रचनाएँ
Pratap Narayan Mishra ki Pramukh Rachnaye: मिश्र जी ने अपनी अल्पायु में ही लगभग 40 पुस्तकों की रचना की। इनमें अनेक कविताएँ, नाटक, निबन्ध, आलोचनाएँ आदि सम्मिलित हैं। Pratap Narayan Mishra ki Rachnaye अर्थात उनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
- प्रताप पीयूष
- निबंध नवनीत
- प्रताप समीक्षा
- कलि-प्रभाव
- हठी हम्मीर
- गौ-संकट
- कलिकौतुक
- भारत-दुर्दशा
- ज्वारी-खुआरी
- समझदार की मौत
- मन की लहर
- शृंगार-विलास
- लोकोक्ति-शतक
- प्रेम-पुष्पावली
- दंगल खंड
- तृप्यन्ताम
- ब्रैडला-स्वागत
- मानस विनोद
- शैव-सर्वस्व
- प्रताप-लहरी
- ब्राह्मण
- हिंदुस्तान
- पंचामृत
- चरिताष्टक
- वचनावली
- राजसिंह
- राधारानी
- कथामाला
- संगीत शाकुंतल
मिश्र जी आधुनिक हिंदी निबंधों की परंपरा को पुष्ट कर हिंदी साहित्य के सभी अंगों की पूर्णता के लिए रचनारत रहे। एक सफल व्यंग्यकार और हास्यपूर्ण गद्य-पद्य-रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है।
(1) निबन्ध-संग्रह: ‘प्रताप पीयूष’, ‘निबन्ध नवनीत’, ‘प्रताप समीक्षा’।
(2) नाटक: ‘कलि प्रभाव’, ‘हठी हम्मीर’, ‘गौ-संकट’।
(3) रूपक: ‘कलि-कौतुक’, ‘भारत-दुर्दशा’।
(4) प्रहसन: ‘ज्वारी-खुआरी’, ‘समझदार की मौत’।
(5) काव्य: ‘मन की लहर’, ‘शृंगार-विलास’, ‘लोकोक्ति-शतक’, ‘प्रेम-पुष्पावली’, ‘दंगल खण्ड’, ‘तृप्यन्ताम्, ‘ब्राडला-स्वागत’, ‘मानस विनोद’, ‘शैव-सर्वस्व’, ‘प्रताप-लहरी’, ‘कानपुर माहात्म्य’, ‘दिवो बरहमन’।
(6) सम्पादन: ‘ब्राह्मण’ एवं ‘हिन्दुस्तान’।
(7) अनूदित: ‘पंचामृत’, ‘चरिताष्टक’, ‘वचनावली’, ‘राजसिंह’, ‘राधारानी’, ‘कथामाला’, ‘संगीत शाकुन्तल’ ‘नीति रत्नावली’, ‘सेनवंश का इतिहास’, ‘सूबे बंगाल का भूगोल’, ‘वर्ण परिचय’, ‘शिशु विज्ञान’, आदि।
इनके अतिरिक्त मिश्र जी ने लगभग 10 उपन्यासों, कहानी, जीवन-चरितों और नीति पुस्तकों का भी अनुवाद किया; जिनमें- राधारानी, अमरसिंह, इन्दिरा, देवी चौधरानी, राजसिंह, कथा बाल-संगीत आदि प्रमुख हैं।
प्रतापनारायण मिश्र की भाषा-शैली
Pratap Narayan Mishra ki Bhasha Shaili: सर्वसाधारण के लिए अपनी रचनाओं को सुलभ बनाने के उद्देश्य से मिश्र जी ने सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। इसमें संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं के प्रचलित शब्दों को भी ग्रहण किया गया है। जहाँ-तहाँ कहावतों, मुहावरों और ग्रामीण शब्दों का प्रयोग स्वच्छंदतापूर्वक हुआ है, अतः भाषा प्रवाहयुक्त, सरल एवं मुहावरेदार है।
प्रतापनारायण मिश्र जी की शैली में वर्णनात्मक , विचारात्मक तथा हास्य-विनोद शैलियों का सफल प्रयोग किया गया है। इनकी शैली को दो प्रमुख प्रकारों में बाँटा जा सकता है-
- हास्य-व्यंग्यपूर्ण विनोदात्मक शैली।
- गम्भीर विचारात्मक एवं विवेचनात्मक शैली।